कभी फ़ुर्सत से मिलूंगा तुझे..
कभी फ़ुर्सत से बातें करेंगे...
ज़िन्दगी फ़ुर्सत में न मिली तो मौत ढूंढेंगे ....!!!
16th November 2009
Monday, November 16, 2009
Sunday, November 01, 2009
भुलक्कड़पन
कभी आँखों पे चश्मा लगाकर
चश्मा ढूंढता हूँ
तो कभी हाथ में कलम पकड़ कर कलम
और जेब में रखी चाबी तो जाने कितनी बार
दिल में बसी कोई चीज़ भी
यूँ ही कई बार ढूंढी है
उस शून्य को, तुझे और कभी कभी खुद को भी
ये कम्बख्त भुलक्कड़पन दिल तक जा बसा है.....
Spetember 2009
चश्मा ढूंढता हूँ
तो कभी हाथ में कलम पकड़ कर कलम
और जेब में रखी चाबी तो जाने कितनी बार
दिल में बसी कोई चीज़ भी
यूँ ही कई बार ढूंढी है
उस शून्य को, तुझे और कभी कभी खुद को भी
ये कम्बख्त भुलक्कड़पन दिल तक जा बसा है.....
Spetember 2009
ख्वाब
आँखों में उगाया ख्वाब कभी,
सींचा अपने हर आँसू से,
ढांपा पलकों के छप्पर से,
जब जेठ दुपहरी धूप लगी...
इक दिन आया आँसू सूखे
पलकें बोझिल पर नींद नहीं
वो ख्वाब कहीं मुरझाया सा
आँखों में लाली सा खिंच कर ,
बेरंग हुआ और ख़त्म हुआ
जो सजता था इन आँखों में....
August 2009
सींचा अपने हर आँसू से,
ढांपा पलकों के छप्पर से,
जब जेठ दुपहरी धूप लगी...
इक दिन आया आँसू सूखे
पलकें बोझिल पर नींद नहीं
वो ख्वाब कहीं मुरझाया सा
आँखों में लाली सा खिंच कर ,
बेरंग हुआ और ख़त्म हुआ
जो सजता था इन आँखों में....
August 2009
रिश्ते
पिघलते हुए रिश्तों से.......
उम्मीदो की एक लौ........
जला रखी है.......
सोचता हूं......
उम्मीदें बुझा कर बचा लूं इस रिश्ते को......
या कायम रखूं उम्मीदें........
रिश्तों के गर्द बन .......
उड्र जाने तक.........
July 2007
उम्मीदो की एक लौ........
जला रखी है.......
सोचता हूं......
उम्मीदें बुझा कर बचा लूं इस रिश्ते को......
या कायम रखूं उम्मीदें........
रिश्तों के गर्द बन .......
उड्र जाने तक.........
July 2007
मौत
जब सूरज आसमानी होगा
और आसमान लाल
रात सिन्दूरी रंग सी घर कि छत पर टपकेगी
और सवेरा कालिख सा
हर आंख में सजेगा
चांद को कटोरे मे रखे हर भिखारी चुप चाप बैठा होगा
और पतझड के सूखे पत्ते बेल बनकर
सबसे ऊंची मीनार पे बैठेंगे
चलेंगे लोग पनी के जमे समन्दर पे
और धरती दल दल से बिखर जायेगी
हर कदम की आहट पे
जब रगो मे बहता खून
ठेले पे रखे बर्फ़ की सिल्ली बन जम जायेगा
और रिसेगा
हर पल मेरे जिस्म से
जब चिमनियो से निकला धुआं
बहता हुआ घर क रोशनदनो क मुंह बन्द कर देगा
और थिरकती हुई बारिश कि बून्दें
किसी खिड्की कि सूनी दरार मे चुपचाप सो जायेगी
जब आंखो मे गरम पानी क झरना नहीं होगा
बल्कि वो खूनी लाल सांसें लेगी
और सीने मे रखा दिल
चुपचाप
मगर
मेज़ पे रखी एक चिट्ठी
धड्कनों सी फड्फडाएगी
यकीन है मुझे
उस वक्त
मिलूंगा मैं तुझसे
February 2007
और आसमान लाल
रात सिन्दूरी रंग सी घर कि छत पर टपकेगी
और सवेरा कालिख सा
हर आंख में सजेगा
चांद को कटोरे मे रखे हर भिखारी चुप चाप बैठा होगा
और पतझड के सूखे पत्ते बेल बनकर
सबसे ऊंची मीनार पे बैठेंगे
चलेंगे लोग पनी के जमे समन्दर पे
और धरती दल दल से बिखर जायेगी
हर कदम की आहट पे
जब रगो मे बहता खून
ठेले पे रखे बर्फ़ की सिल्ली बन जम जायेगा
और रिसेगा
हर पल मेरे जिस्म से
जब चिमनियो से निकला धुआं
बहता हुआ घर क रोशनदनो क मुंह बन्द कर देगा
और थिरकती हुई बारिश कि बून्दें
किसी खिड्की कि सूनी दरार मे चुपचाप सो जायेगी
जब आंखो मे गरम पानी क झरना नहीं होगा
बल्कि वो खूनी लाल सांसें लेगी
और सीने मे रखा दिल
चुपचाप
मगर
मेज़ पे रखी एक चिट्ठी
धड्कनों सी फड्फडाएगी
यकीन है मुझे
उस वक्त
मिलूंगा मैं तुझसे
February 2007
एक कविता है
एक कविता थी ...
जिसका नाम नहीं रखा..
एक कविता थी...
जो आज भी किसी किताब के ५७ नंबर पेज पे रखी है ...
एक कविता थी...
जिसको सबसे पहले पढने वाला कभी मिला ही नहीं..
एक कविता थी...
जो आज भी अधूरी है ..
एक कविता थी...
जिसमे कोई छंद अलंकार नहीं था..
एक कविता थी...
जो कोरे पन्ने पे पानी से लिखी थी...
एक कविता थी...
जो तेरे दिल पे अपने आंसू से लिखी थी ..
हाँ वो एक कविता ...
वो आज भी है..
एक कविता है..
जो मेरे सबसे पास है..!!!
April 2009
जिसका नाम नहीं रखा..
एक कविता थी...
जो आज भी किसी किताब के ५७ नंबर पेज पे रखी है ...
एक कविता थी...
जिसको सबसे पहले पढने वाला कभी मिला ही नहीं..
एक कविता थी...
जो आज भी अधूरी है ..
एक कविता थी...
जिसमे कोई छंद अलंकार नहीं था..
एक कविता थी...
जो कोरे पन्ने पे पानी से लिखी थी...
एक कविता थी...
जो तेरे दिल पे अपने आंसू से लिखी थी ..
हाँ वो एक कविता ...
वो आज भी है..
एक कविता है..
जो मेरे सबसे पास है..!!!
April 2009
ताजगी
कभी तुम्हारी आँखों की
चमक उधार ली है..
तो कभी होठों की हंसी...
कभी तुम्हारे जिस्म की...
रात भर की बासी खुशबू...
और कभी
अलसाई अंगडाई का..
सोंधा एहसास...
मेरे पास ताजगी जैसा कुछ भी नहीं था..
जो भी खुद पे सजाया...
सब तुमसे पाया...
शायद इसीलिए..
हर इंटरव्यू से पहले...
तुम्हारा माथा चूमा है मैंने....!!!!
April 2009
चमक उधार ली है..
तो कभी होठों की हंसी...
कभी तुम्हारे जिस्म की...
रात भर की बासी खुशबू...
और कभी
अलसाई अंगडाई का..
सोंधा एहसास...
मेरे पास ताजगी जैसा कुछ भी नहीं था..
जो भी खुद पे सजाया...
सब तुमसे पाया...
शायद इसीलिए..
हर इंटरव्यू से पहले...
तुम्हारा माथा चूमा है मैंने....!!!!
April 2009
एक टूटा हुआ टुकडा
नकली मोती का एक टूटा हुआ टुकडा ..
तेरी बाली से गिर कर मेरे बालो में आ फँसा था ...
कई दिनों तक वहीँ पड़ा रहा .
फिर एक समंदर की लहर जाने उसे बहा कर कहाँ ले गयी ..
आज हर लहर में तेरे निशाँ ढूंढ रहा हूँ...जाने किसी डॉलफिन के पर में
नकली मोती में सिमटी तू ही मिल जाये ..!!!!
March 2009
तेरी बाली से गिर कर मेरे बालो में आ फँसा था ...
कई दिनों तक वहीँ पड़ा रहा .
फिर एक समंदर की लहर जाने उसे बहा कर कहाँ ले गयी ..
आज हर लहर में तेरे निशाँ ढूंढ रहा हूँ...जाने किसी डॉलफिन के पर में
नकली मोती में सिमटी तू ही मिल जाये ..!!!!
March 2009
ये कविता भी कितनी बुरी है
हर कविता अच्छी नहीं होती...
कुछ बुरी होती है
और कुछ बहुत बुरी ...
.
.
बुरी कविता का हर टूटा हुआ शब्द ..
विवश करता है ,
हर बार ,
कुछ नया लिखने को ...
.
.
अब तो मैं अच्छी कवितायें सोचता ही नहीं ..
सोच लूँ ,
तो शायद ...
विचार शेष न रहे ..
अगली कविता के लिए ...
.
.
ये कविता भी कितनी बुरी है..
March 2009
कुछ बुरी होती है
और कुछ बहुत बुरी ...
.
.
बुरी कविता का हर टूटा हुआ शब्द ..
विवश करता है ,
हर बार ,
कुछ नया लिखने को ...
.
.
अब तो मैं अच्छी कवितायें सोचता ही नहीं ..
सोच लूँ ,
तो शायद ...
विचार शेष न रहे ..
अगली कविता के लिए ...
.
.
ये कविता भी कितनी बुरी है..
March 2009
एकांत
एक रात चुनी अंधियारी सी ,आँखों में थी कुछ काली सी
ना सपने थे ,ना आंसू थे ,ना अंगडाई ना काजल था ...
ना रिश्ते थे.ना बंधन था ,ना सूरज उगने का डर था
ना धड़कन थी ,ना साँसे थी , ना राह देखती घडियां थी
एक रात चुनी जो अपनी थी,पगलाई सी तन्हाई सी..
एक रात जिसे मैं जी ना सका,बस बालिश्तों से बाँधी है ...
सोचा है एक दिन जी लूँगा,वो रात जिसे मैं जी ना सका .
January 2009
ना सपने थे ,ना आंसू थे ,ना अंगडाई ना काजल था ...
ना रिश्ते थे.ना बंधन था ,ना सूरज उगने का डर था
ना धड़कन थी ,ना साँसे थी , ना राह देखती घडियां थी
एक रात चुनी जो अपनी थी,पगलाई सी तन्हाई सी..
एक रात जिसे मैं जी ना सका,बस बालिश्तों से बाँधी है ...
सोचा है एक दिन जी लूँगा,वो रात जिसे मैं जी ना सका .
January 2009
मिस करता हूँ
बिना किसी बात के,
तुझ पर झुंझलाना ,
मिस करता हूँ.....
फ़ोन ऑन रख के सो जाना,
मिस करता हूँ,
तुझे झूठ बोल कर,
हेड फ़ोन लगा के फिल्में देखना,
और हर बार तेरा फ़ोन आने पे
"बस अभी घर पहुँचा हूँ" ये कहना,
मिस करता हूँ...
सिर्फ़ मैं ही नहीं,
मेरे घर की कुछ चीज़ें भी तुझे मिस करती हैं,
आलमारी के शीशे पे चिपकी तेरी बिन्दी,
और मेरे कंप्यूटर की मेज़ पे छूटा तेरा क्लचर,
यहाँ तक की घर के जूठे बर्तन और झाडू,
दोपहर की चाय, और शाम की मैगी ,
कुकर में बना पॉप कॉर्न और बाइक की पिचली सीट
कंप्यूटर का स्पाइडर, हर्ट्स और सोलिटेयर
सब तुझे मिस करते हैं...
और इन सबसे कहीं ज्यादा,
मेरा मन,
तुझे मिस करता है...
ज़िन्दगी अभी थमी तो नहीं...
हाँ, थोडी धीमी ज़रूर हो गयी है...!!!!
शौर्य जीत सिंह
दिनांक - २८/१०/२००९
तुझ पर झुंझलाना ,
मिस करता हूँ.....
फ़ोन ऑन रख के सो जाना,
मिस करता हूँ,
तुझे झूठ बोल कर,
हेड फ़ोन लगा के फिल्में देखना,
और हर बार तेरा फ़ोन आने पे
"बस अभी घर पहुँचा हूँ" ये कहना,
मिस करता हूँ...
सिर्फ़ मैं ही नहीं,
मेरे घर की कुछ चीज़ें भी तुझे मिस करती हैं,
आलमारी के शीशे पे चिपकी तेरी बिन्दी,
और मेरे कंप्यूटर की मेज़ पे छूटा तेरा क्लचर,
यहाँ तक की घर के जूठे बर्तन और झाडू,
दोपहर की चाय, और शाम की मैगी ,
कुकर में बना पॉप कॉर्न और बाइक की पिचली सीट
कंप्यूटर का स्पाइडर, हर्ट्स और सोलिटेयर
सब तुझे मिस करते हैं...
और इन सबसे कहीं ज्यादा,
मेरा मन,
तुझे मिस करता है...
ज़िन्दगी अभी थमी तो नहीं...
हाँ, थोडी धीमी ज़रूर हो गयी है...!!!!
शौर्य जीत सिंह
दिनांक - २८/१०/२००९
आइडेंटिटी
मैं अपनी आइडेंटिटी,
अपने हॉस्टल के ,
एक कमरे में छोड़ आया हूँ...
आइडेंटिटी के कुछ टुकड़े....
बगल के कुछ कमरों में भी छूटे होंगे ...
कुछ कैंटीन में तो कुछ लैब के किसी कंप्यूटर पर भी ...
शायद अब वहां कोई और रहता होगा,
पर मेरा एक हिस्सा ,
अब भी वहां किसी,
पेपरवेट के नीचे,
सांस ज़रूर लेता होगा...
कल हवाई जहाज़ में ,
उस एयर होस्टेस ने मुझे मि. सिंह कहकर बुलाया था ,
पर वो मैं तो नहीं था...
मैं तो अपनी आइडेंटिटी,
अपने हॉस्टल के,
उस कमरे में ही छोड़ आया हूँ....
१५/०५/२००९
अपने हॉस्टल के ,
एक कमरे में छोड़ आया हूँ...
आइडेंटिटी के कुछ टुकड़े....
बगल के कुछ कमरों में भी छूटे होंगे ...
कुछ कैंटीन में तो कुछ लैब के किसी कंप्यूटर पर भी ...
शायद अब वहां कोई और रहता होगा,
पर मेरा एक हिस्सा ,
अब भी वहां किसी,
पेपरवेट के नीचे,
सांस ज़रूर लेता होगा...
कल हवाई जहाज़ में ,
उस एयर होस्टेस ने मुझे मि. सिंह कहकर बुलाया था ,
पर वो मैं तो नहीं था...
मैं तो अपनी आइडेंटिटी,
अपने हॉस्टल के,
उस कमरे में ही छोड़ आया हूँ....
१५/०५/२००९
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