Monday, October 20, 2014

इस बार

मद्धम आँच पर,
सभी कदम सेंके हैं,
इस बार,
थोड़ा उबल कर देखूँगा.

मुस्कुराता रहा सबके सामने,
लोग परेशान ना हो मेरी आवाज़ से,
इस बार,
थोड़ा हँस कर देखूँगा.

सारे आँसू
अभी भीतर रखे हैं मन के,
कमज़ोर ना लग जाऊँ औरों को,
इस बार,
थोड़ा रो कर देखूँगा.

धीमी रफ़्तार से,
चलता रहा उम्र भर,
गिर ना जाऊँ, कहीं इस डर से,
इस बार,
थोड़ा उड़ कर देखूँगा.

जद्दोजहद और भागम-भाग में ज़िंदगी की,
जाने कितने अपनों को,
पीछे छोड़ आया हूँ,
इस बार,
थोड़ा मुड़ कर देखूँगा.

एक बार ही सही,
थोड़ी सी ज़िंदगी,
जी कर देखूँगा.

--
12 अक्टूबर 2014,
दिल्ली