काव्य-कुसुम
अम्बर भर काजल से बेहतर, मुठ्ठी भर सिन्दूर बनो.
Monday, July 09, 2012
रंग
कुछ रंग धीरे चढ़ते हैं,
और कुछ चढ़ते ही नहीं,
मुझ पर सामाजिकता का रंग,
कुछ धीरे चढ़ा,
और समझ
का,
कभी चढ़ा ही नहीं,
कोशिश कई बार की,
तुझे खुद से अलग करने की,
खैर,
कुछ रंग उतरते भी तो नहीं |
शौर्य जीत सिंह
०९/०७/२०१२, जमशेदपुर
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