भावना का वेग ले कर,
शब्द शोलों में दबा कर,
ध्येय का अविराम राही,
साथ कंटक ले चला हूँ,
अग्निपथ रचता चला हूँ |
ओज कण कण में समां कर,
पथिक को पाथेय दे कर,
कर प्रखर वाणी सभी की,
साथ सबको ले चला हूँ,
अग्निपथ रचता चला हूँ |
कष्ट का ही अस्त्र ले कर,
ज्वार हृदयों में उठा कर,
भारती माँ का पुजारी,
छंद माला कह चला हूँ,
अग्निपथ रचता चला हूँ |
शौर्य जीत सिंह
२१-जुलाई-२००४
Sunday, October 24, 2010
Tuesday, July 20, 2010
ब्रह्म
कई बार कोशिश की,
तुझे कुछ शब्दों में बाँधने की,
एक कविता में समेटने की,
पर सीमित न कर पाया,
कभी भी,
कोई भी,
न पिकासो अपने रंगों में,
न बीथोवेन अपनी तरंगों में,
हाँ तेरा कुछ अंश अवश्य रहा,
हर शब्द, रंग और तरंग में,
इसीलिए,
जब शेष न रहूँगा मैं,
शेष रहेंगे,
मेरे शब्द,
तुझमे सिमटे हुए!
शौर्य जीत सिंह
२० जुलाई 2010
तुझे कुछ शब्दों में बाँधने की,
एक कविता में समेटने की,
पर सीमित न कर पाया,
कभी भी,
कोई भी,
न पिकासो अपने रंगों में,
न बीथोवेन अपनी तरंगों में,
हाँ तेरा कुछ अंश अवश्य रहा,
हर शब्द, रंग और तरंग में,
इसीलिए,
जब शेष न रहूँगा मैं,
शेष रहेंगे,
मेरे शब्द,
तुझमे सिमटे हुए!
शौर्य जीत सिंह
२० जुलाई 2010
Sunday, June 27, 2010
बाबा
एक दिन,
सवेरे,आँख खुली तो,
खुद को सोया हुआ पाया,
उसी खाट पर,
जो आज बूढ़ी हो चुकी है,
शायद तब भी थी,
पर आज,
जर्जर हो चली है,
मैं आँखें मूदें,
किसी गोद में चला जा रहा था,
लोहे के नल के चलने की आवाज़,
कानों में पड़ी तो नींद खुली,
और एक रुखी सी,
गीली हथेली चेहरे को स्नेह देने लगी,
कुछ मीठा गुड,
मुँह में डाला,
और मैं,
अभी भी,
आँखों को पुनः ,
बंद करने की जिद करता रहा था,
"मछली देखने चलें"
काँपती आवाज़ कानों में पडी,
तो मानो स्फूर्ति मन में हिलोरे लेने लगी,
और निद्रा,
अपनी निद्रा में लीं हो गयी
कुछ बासी रोटियाँ लिए,
हम घर के पिछवाड़े,
अपने तालाब पर पहुँचे,
रोटियों के टुकड़े फ़ेकेऔर मछलियाँ ,
सुनहरी,हरी,पीली और जाने कितनी रंगीली,
जल क्रीड़ा करने लगी,
ऐसा सुख , ऐसा आनंद,
पर पीछे,
एक हाथ कंधे पर,
अभी भी आगे न जाने के लिए कह रहा था,
जबरदस्ती कर रहा था
मैं भी आगे जाने की जिद कर रहा था,
कि अर्धनिद्रा से चेता,
लगा,
क्या कुछ भी शेष नहीं था,
सब कुछ समाप्त हो गया,
सब कुछ..!!
मात्र एक स्मृति शेष थी,
बाबा..!!
(February '05)
I'll always miss you a lot Baba..!!
सवेरे,आँख खुली तो,
खुद को सोया हुआ पाया,
उसी खाट पर,
जो आज बूढ़ी हो चुकी है,
शायद तब भी थी,
पर आज,
जर्जर हो चली है,
मैं आँखें मूदें,
किसी गोद में चला जा रहा था,
लोहे के नल के चलने की आवाज़,
कानों में पड़ी तो नींद खुली,
और एक रुखी सी,
गीली हथेली चेहरे को स्नेह देने लगी,
कुछ मीठा गुड,
मुँह में डाला,
और मैं,
अभी भी,
आँखों को पुनः ,
बंद करने की जिद करता रहा था,
"मछली देखने चलें"
काँपती आवाज़ कानों में पडी,
तो मानो स्फूर्ति मन में हिलोरे लेने लगी,
और निद्रा,
अपनी निद्रा में लीं हो गयी
कुछ बासी रोटियाँ लिए,
हम घर के पिछवाड़े,
अपने तालाब पर पहुँचे,
रोटियों के टुकड़े फ़ेकेऔर मछलियाँ ,
सुनहरी,हरी,पीली और जाने कितनी रंगीली,
जल क्रीड़ा करने लगी,
ऐसा सुख , ऐसा आनंद,
पर पीछे,
एक हाथ कंधे पर,
अभी भी आगे न जाने के लिए कह रहा था,
जबरदस्ती कर रहा था
मैं भी आगे जाने की जिद कर रहा था,
कि अर्धनिद्रा से चेता,
लगा,
क्या कुछ भी शेष नहीं था,
सब कुछ समाप्त हो गया,
सब कुछ..!!
मात्र एक स्मृति शेष थी,
बाबा..!!
(February '05)
I'll always miss you a lot Baba..!!
Thursday, April 29, 2010
उलझन
शाम सुखाई छत पर रख के,
बारिश का मौसम ना था,
जाने कब किस छोर से बह कर,
तू घन बन मुझ पर छाई,
शाम से ले कर भोर भी भीगी,
उलझी दोनों इक हो कर,
सुलझाया तो बीच में उलझी,
रात गिरेगी आँगन में,
सुलझाऊं या रहने दूं अब,
उलझी सुलझी सब रातें,
उलझ गया मैं उलझ गया.!!!!
शौर्य जीत सिंह
३०-०४-२०१०
For you....from Me....!!!!
बारिश का मौसम ना था,
जाने कब किस छोर से बह कर,
तू घन बन मुझ पर छाई,
शाम से ले कर भोर भी भीगी,
उलझी दोनों इक हो कर,
सुलझाया तो बीच में उलझी,
रात गिरेगी आँगन में,
सुलझाऊं या रहने दूं अब,
उलझी सुलझी सब रातें,
उलझ गया मैं उलझ गया.!!!!
शौर्य जीत सिंह
३०-०४-२०१०
For you....from Me....!!!!
Wednesday, March 03, 2010
रिश्तों के दाग
चमकीली पन्नी का एक पुराना टुकड़ा देख,
आँखें फिर से नम हो गयीं,
रिश्तों के दाग भी कितने गहरे होते हैं,जाते-जाते जाते हैं....!!!
०३/०३/२०१०
आँखें फिर से नम हो गयीं,
रिश्तों के दाग भी कितने गहरे होते हैं,जाते-जाते जाते हैं....!!!
०३/०३/२०१०
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