Saturday, May 16, 2020

साला मज़दूर

वह तिल तिल कर
थोड़ा थोड़ा
हर रोज़ मरता है,
साला मज़दूर,
बदबू बहुत करता है।

परचून की दुकान पर,
चवन्नी अठन्नी के लिए लड़ता है,
बारह घंटे की शिफ्ट में,
जी नहीं भरता इसका,
ओवरटाइम भी करता है,
साला मज़दूर,
बदबू बहुत करता है।

दस बाई दस के झोपड़ों में,
दस और कुत्तों संग रहता है,
बाप की दवा,
और बच्चों की फीस की खातिर,
बस एक वक्त ही पेट भरता है,
साला मज़दूर,
बदबू बहुत करता है।

दुनिया भर का ज़हर,
अपने में भर के,
अंदर अंदर खुद-ब-खुद सड़ता है,
हमारी ऊंची इमारतों को चमका कर,
खुद कालिख सा,
किसी गर्त में गिरता है,
साला मज़दूर,
बदबू बहुत करता है।

हमारे शहरों की रौनक,
कम होती है इसके होने से,
क्या हुआ जो हर सुबह हमारे उठने से पहले,
शायद सारा कचरा यही ढोता है,
लेकिन,
साला मज़दूर,
बदबू बहुत करता है।

नासमझ पागल है साला,
हर किसी से उम्मीद रखता है,
मीलों दूर घर की राह,
कदमों से चलने का दम भरता है,
साला मज़दूर,
बदबू बहुत करता है।

हमें क्या मतलब,
साला क्यों जीता,
क्यों मरता है,
हमें बस इतना मालूम है,
साला मज़दूर,
बदबू बहुत करता है।


- शौर्य जीत सिंह
16 मई 2020, मुम्बई

(कोरोना वायरस के समय असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के पलायन और दयनीय स्थिति पर कटाक्ष)

Saturday, March 28, 2020

बहुत कुछ और हो तुम

मैं गिन के रखता हूँ जिन पलों को सीने में
जैसे मेरी अब तक की
बस एक ही कमाई हो तुम
गर्मी से झुलसती मेरी सांसो की खातिर
ठंडक का वो पहला एहसास
जैसे आम के पेडो की
वो पहली बौर हो तुम

मैं जिसे खर्च नही करता किसी की खातिर
सिर्फ अपने अंदर समेट कर रखता हूँ]
बिना जिसके मेरी कोई अहमियत
कोई अभिमान, कोई पहचान नही
चुप्पी मेरे होठों की
और मेरे मन का शोर हो तुम

हाथ से छूट न जाये यही डरता हूँ
जिसको पाने के लिए
हर रोज़
कितनी ही दफा मरता हूँ
वो ख्वाब जिसका एक सिरा मेरा है
उसी ख्वाब का
एक दूसरा खूसूरत छोर हो तुम

मैं जो गिर जाऊं कभी भीड़ में
इस दुनिया की
बाहों में भर के मुझे झट से उठा लेती हो
धूप कितनी भी हो बनती हो तुम छाया मेरी
मेरी भागती दौड़ती ज़िन्दगी में
फुरसत का
एक ठौर हो तुम

सिर्फ एक ख्वाब, याद और एहसास नही हो सुन लो
मेरे जीने के लिए
बहुत कुछ और हो तुम


--
शौर्य जीत सिंह
27 मार्च 2020, मुम्बई