कभी यूँ भी बरसो,
कि मन भीगे।
गलियों और सडकों का सूनापन,
जब मुझसे हो कर गुज़रे,
तो तुम्हारे टिप टिप की खनक से,
गुलज़ार हो कर चहके।
कभी यूँ भी बरसो,
कि मन भीगे।
पेड़ों के पत्तों पर जमी धूल,
जब मेरी आँखों में गिरने को हो,
तुम्हारे हल्के बहाव में,
सुनहरी हो कर बिखरे।
कभी यूँ भी बरसो,
कि मन भीगे।
ज़मीन की ये कठोर तपन,
जब मेरी एड़ियाँ पिघलाने को हो,
तुम्हारी ठंडी बूंदों संग,
कुछ शर्मा के पिघले।
कभी यूँ भी बरसो,
कि मन भीगे।
हवाओं के गर्म थपेड़े,
जब मेरी साँसों में घुलने लगे,
तुम्हारी बौछारों से मिल कर,
पूरी कायनात में महके,
कभी यूँ भी बरसो,
कि मन भीगे।
कभी यूँ भी बरसो,
कि मन भीगे।
-
शौर्य जीत सिंह
३० जून २०१९, मुम्बई
कि मन भीगे।
गलियों और सडकों का सूनापन,
जब मुझसे हो कर गुज़रे,
तो तुम्हारे टिप टिप की खनक से,
गुलज़ार हो कर चहके।
कभी यूँ भी बरसो,
कि मन भीगे।
पेड़ों के पत्तों पर जमी धूल,
जब मेरी आँखों में गिरने को हो,
तुम्हारे हल्के बहाव में,
सुनहरी हो कर बिखरे।
कभी यूँ भी बरसो,
कि मन भीगे।
ज़मीन की ये कठोर तपन,
जब मेरी एड़ियाँ पिघलाने को हो,
तुम्हारी ठंडी बूंदों संग,
कुछ शर्मा के पिघले।
कभी यूँ भी बरसो,
कि मन भीगे।
हवाओं के गर्म थपेड़े,
जब मेरी साँसों में घुलने लगे,
तुम्हारी बौछारों से मिल कर,
पूरी कायनात में महके,
कभी यूँ भी बरसो,
कि मन भीगे।
कभी यूँ भी बरसो,
कि मन भीगे।
-
शौर्य जीत सिंह
३० जून २०१९, मुम्बई