Tuesday, July 20, 2010

ब्रह्म

कई बार कोशिश की,
तुझे कुछ शब्दों में बाँधने की,
एक कविता में समेटने की,
पर सीमित न कर पाया,
कभी भी,
कोई भी,
न पिकासो अपने रंगों में,
न बीथोवेन अपनी तरंगों में,

हाँ तेरा कुछ अंश अवश्य रहा,
हर शब्द, रंग और तरंग में,
इसीलिए,
जब शेष न रहूँगा मैं,
शेष रहेंगे,
मेरे शब्द,
तुझमे सिमटे हुए!

शौर्य जीत सिंह
२० जुलाई 2010