Saturday, May 18, 2013

सफ़हे

पुराने कुछ सफहों पर तुम्हारा नाम,
कोडवर्ड में लिखा है,
वो किताबें किसी दराज़ में 
सबसे नीचे दबी रखी  हैं,
जब खोलता हूँ इन दराजों को,
ये मुझसे बातें भी करती हैं,
और कई दिनों बाद मिलूँ,
तो शिकायतें भी करती हैं,

अक्सर सींचता हूँ इनको
अपने आँसू  से,
जब इनपर फूल लगेगा,
तो  भेजूंगा तुमको।

--
शौर्य जीत सिंह
१६/०५/२०१३ 
आजमगढ़ 

इतनी है

दास्तानें कई हैं,
सुनों कौन सी,
कशमकश इतनी है।

मुद्दे कई हैं,
सुलझाऊँ कौन सा,
बहस इतनी है।

कारोबार इत्र का है,
पर तेरी साँसों से जो मिलती है,
महक इतनी है।

पाने को तो
आसमान मेरी मुट्ठी में है,
बस तुझे भी छू लूँ ,
ललक इतनी है।

--
शौर्य जीत सिंह
१६/०५/२०१३
आजमगढ़

कुछ बीस साल बाद


वे रातें,
जो गाँव में,
आसमान के नीचे गुज़रती थी,
कुछ ख़ास था उनमे,

तारों के कई पैटर्न थे,
और उनकी पोजीशन से लेकर,
मूवमेंट तक सब कुछ,
ज़बानी याद हो चला था ,

सप्तर्षि तो रोज़ देखता था,
ध्रुव तारा कभी दिखा नहीं मुझको,
बाबा कहते थे,
वो रात के बारह बजे के बाद दिखता है,
पर आँखें हर रात,
आधी रात से पहले ही,
बोझिल होकर बंद हो जाती थी,

आज कुछ बीस-एक साल बाद,
जगराते तो अक्सर होते हैं,
लेकिन सर के ऊपर पी. ओ. पी. की छत होती है,
जिसके पार,
ना आसमान दिखता है,
ना ध्रुव तार,
और ना ही बाबा।

--
शौर्य जीत सिंह
१६ /०५/२०१३
आजमगढ़