Sunday, May 08, 2016

माँ

नहीं आती समझ मुझको , कठिन शब्दों की भाषाएँ ,
मेरी माँ रूठ जाए तो, गलत हूँ जान लेता हूँ.

नहीं ख्वाहिश है पाने की, ना खोने का है डर मुझको,
तेरे सीने से लग जाऊँ , तो दुनिया भूल जाता हूँ.

सभी दौड़ें जिन्हे मैं हार कर, घर लौट आया था,
तेरी इक डाँट पर मैं, सारा जग ये जीत आया हूँ.

अकेला मैं नहीं पड़ता, भले हालत जैसे हों ,
तेरी तस्वीर हो दिल में, मैं आगे बढ़ निकलता हूँ.

नहीं सज़दे किये मैंने, खुद को भी नहीं जाना,
तेरे पैरों को छू कर, उसको जन्नत मान लेता हूँ.

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शौर्य जीत सिंह
०८ मई २०१६ , कोलकाता