Wednesday, January 04, 2006

चहकते कदम

चहकते कदमों का चुप हो जाना,
अजीब तो लगता है.


छनकती थी घटा
जब पैरों में,
सिमटती थी पूरी नदी,
कमर पे अटके घड्रे में,
तमाम कोशिशों के बावज़ूद,
आसमान बार बार उड्र जाया करता था
सिर से........
और दूसरों के बगीचों से
इमली चुराने के पुलाव पकते थे.


मांग में शाम के रंग सज़े
तो नदी मे कुछ और उथल पुथल हुई,
आसमान कुछ और रंगीन हो गया,
और घटाएं और तेज़ी से बरसने लगीं.


पता चला,
चन्द मुट्ठी हरियाली के लिये,
उन लोगों ने,
नदी का बहाव रोक दिया है,
घटायें रूठ गयी हैं,
और आसमान को गुबार के हवाले कर दिया है.


आज नदी शान्त है.
और आसमान सूना,
घटायें सन्नाटों में गुम हैं,
और इमली के पुलाव नहीं पकते.


घर की सूनी चौखट पे बैठा,
आधा सूरज
इस इन्तज़ार में
कि
शायद,
आसमान फिर से खुशनुमां हो जाये,
और बाट जोह रहा है,
नदी के फिर से बह चलने का,
उस आधे सूरज का चेहरा देख कर लगा,
चहकते कदमों का चुप हो जाना,
अजीब तो लगता है.


हां ,
कल ये भी सुना है,
कि
एक ही नदी के,
दो बहाव रुके हैं.


चहकते कदमों का चुप हो जाना,
अजीब तो लगता है.


शौर्यजीत सिंह
०३.१२.२००५



my this poem is dedicated to a girl who died because of dowery............with her child in her...........