Saturday, October 22, 2016

अस्तित्व

याद है तुमको,
वो बारिशों के दिन,
जब मौसम की पहली झमाझम बारिश के बाद,
मटमैले पत्तों वाला बूढा बरगद,
अपने पत्तों से गर्द हटा कर,
कैसे हरा हो जाता था,
फिर से लहलहा जाता था,
और एहसास करा जाता था,
हमें,
अपने होने का.

यूँ ही कभी,
बिन बताये ,
तुम आओ,
और मैं लहक जाऊँ ,
तो शायद एहसास कर पाओगे,
तुम भी,
मेरे होने का.


--
शौर्य जीत सिंह
१६.०६.२०१६, कोलकाता


Sunday, May 08, 2016

माँ

नहीं आती समझ मुझको , कठिन शब्दों की भाषाएँ ,
मेरी माँ रूठ जाए तो, गलत हूँ जान लेता हूँ.

नहीं ख्वाहिश है पाने की, ना खोने का है डर मुझको,
तेरे सीने से लग जाऊँ , तो दुनिया भूल जाता हूँ.

सभी दौड़ें जिन्हे मैं हार कर, घर लौट आया था,
तेरी इक डाँट पर मैं, सारा जग ये जीत आया हूँ.

अकेला मैं नहीं पड़ता, भले हालत जैसे हों ,
तेरी तस्वीर हो दिल में, मैं आगे बढ़ निकलता हूँ.

नहीं सज़दे किये मैंने, खुद को भी नहीं जाना,
तेरे पैरों को छू कर, उसको जन्नत मान लेता हूँ.

-
शौर्य जीत सिंह
०८ मई २०१६ , कोलकाता 

Saturday, March 26, 2016

बबलू बन्दर - 2

बबलू बन्दर जब भी आते,
धमा चौकड़ी खूब मचाते,
दादा जी को खूब छकाते ,
पर दादी को बहुत लुभाते,

दादा लाठी ले कर आते,
दादा जी जब उन्हें डराते,
दादी हलवा पूड़ी लाती,
फिर कल आना ये बतलाती,

अपने बबलू होशियार हैं,
पढ़े लिखे और समझदार हैं,
छत पर बस तब ही हैं आते,
दादा जी जब ऑफिस जाते।

--
शौर्य जीत सिंह
१४-०३-२०१६, कोलकाता



सूखती स्याही

कुछ दिन यूँ ख़ामोश गुज़रे पन्नो पर,
ऐसा लगा,
स्याही सूख गयी मेरी कलम से,
हमेशा के लिए।

जो कल तेरी याद में,
दो आँसू गिरे,
रंग फिर से उतर आये पन्नों पर,
और यकीन हुआ,
ना ये ग़म गुज़रेगा,
ना ये स्याही सूखेगी।

कभी ये स्याही,
दर्द की परतों को गीला कर जाती है,
तो कभी दर्द,
सूखती स्याही को ज़िन्दगी दे जाता है।

दोनों अधूरे हैं,
एक दूसरे के बिना,
मुक़म्मल हो जाते,
तो कविता ना होती शायद।

--
शौर्य जीत सिंह
१४-०३-२०१६, कोलकाता