Saturday, March 26, 2016

सूखती स्याही

कुछ दिन यूँ ख़ामोश गुज़रे पन्नो पर,
ऐसा लगा,
स्याही सूख गयी मेरी कलम से,
हमेशा के लिए।

जो कल तेरी याद में,
दो आँसू गिरे,
रंग फिर से उतर आये पन्नों पर,
और यकीन हुआ,
ना ये ग़म गुज़रेगा,
ना ये स्याही सूखेगी।

कभी ये स्याही,
दर्द की परतों को गीला कर जाती है,
तो कभी दर्द,
सूखती स्याही को ज़िन्दगी दे जाता है।

दोनों अधूरे हैं,
एक दूसरे के बिना,
मुक़म्मल हो जाते,
तो कविता ना होती शायद।

--
शौर्य जीत सिंह
१४-०३-२०१६, कोलकाता 

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