Thursday, February 27, 2014

एक लाइन

एक लाइन ,
जो अटकी है मन में,
कुछ वक़्त से,
लाख कोशिशों के बाद भी,
उतरती नहीं पन्नों पर।

कभी आस पास
औरों को देख कर
ठिठक जाती है,
तो कभी अल्फ़ाज़ों के जंगल में
उलझ जाती है,
बड़ी सीधी सादी है,
शरमाती है,
सकुचाती है।

किसी रोज़ फुर्सत सॆ
नज़दीक आ कर,
मेरी आँखों में ही पढ़ लेना तुम,
उस लाइन को
लफ्ज़ नाकाफ़ी होंगे शायद।

२२ फरवरी, २०१४
नई दिल्ली 

Tuesday, February 18, 2014

वहीँ मिलूंगा

बादलों के पार 
चाँद की मद्धम रौशनी से रोशन 
एक टुकड़ा है ज़मीन का
कभी कहा नहीं तुमसे,
पर बरसों पहले तुम्हारी खातिर ही,
छुपाया था उसको वहाँ पर,

बरसों बाद वहीँ मिलूंगा तुमको।

शौर्य जीत सिंह
१८ फरवरी, २०१४
गाज़ियाबाद