Monday, October 20, 2014

इस बार

मद्धम आँच पर,
सभी कदम सेंके हैं,
इस बार,
थोड़ा उबल कर देखूँगा.

मुस्कुराता रहा सबके सामने,
लोग परेशान ना हो मेरी आवाज़ से,
इस बार,
थोड़ा हँस कर देखूँगा.

सारे आँसू
अभी भीतर रखे हैं मन के,
कमज़ोर ना लग जाऊँ औरों को,
इस बार,
थोड़ा रो कर देखूँगा.

धीमी रफ़्तार से,
चलता रहा उम्र भर,
गिर ना जाऊँ, कहीं इस डर से,
इस बार,
थोड़ा उड़ कर देखूँगा.

जद्दोजहद और भागम-भाग में ज़िंदगी की,
जाने कितने अपनों को,
पीछे छोड़ आया हूँ,
इस बार,
थोड़ा मुड़ कर देखूँगा.

एक बार ही सही,
थोड़ी सी ज़िंदगी,
जी कर देखूँगा.

--
12 अक्टूबर 2014,
दिल्ली

Monday, July 14, 2014

बाकी है

अभी कुछ आस बाकी है,
अभी कुछ साँस बाकी है,
बुझूँ तो भस्म हो जाऊँ ,
अभी कुछ आग बाकी है |

अभी गलियों का सूनापन,
नहीं पसरा मेरे घर तक,
कहाँ से अलविदा कह दूँ,
वो कुछ जज़्बात बाकी है |

सभी दौड़ें नही हारा,
भले पीछे रहा हूँ मैं,
नही मंज़िल मिली तो क्या,
अभी कुछ राह बाकी है |

ख़तम सब कुछ हुआ,
या रह गया इंसान कुछ मुझमें,
स्वयं के ख़त्म होने की,
अभी शुरुआत बाकी है |



२६ अक्टूबर 2013
गाज़ियाबाद

Wednesday, June 11, 2014

त्रिवेणी

एक सपना टूट कर बिखरा ज़मीन पर
बावज़ूद सन्नाटों के कोई आवाज़ ना हुई.

पाँव में चुभे टुकड़े आज भी दुखते हैं.

नई दिल्ली, १२/०६/२०१४ 

Thursday, February 27, 2014

एक लाइन

एक लाइन ,
जो अटकी है मन में,
कुछ वक़्त से,
लाख कोशिशों के बाद भी,
उतरती नहीं पन्नों पर।

कभी आस पास
औरों को देख कर
ठिठक जाती है,
तो कभी अल्फ़ाज़ों के जंगल में
उलझ जाती है,
बड़ी सीधी सादी है,
शरमाती है,
सकुचाती है।

किसी रोज़ फुर्सत सॆ
नज़दीक आ कर,
मेरी आँखों में ही पढ़ लेना तुम,
उस लाइन को
लफ्ज़ नाकाफ़ी होंगे शायद।

२२ फरवरी, २०१४
नई दिल्ली 

Tuesday, February 18, 2014

वहीँ मिलूंगा

बादलों के पार 
चाँद की मद्धम रौशनी से रोशन 
एक टुकड़ा है ज़मीन का
कभी कहा नहीं तुमसे,
पर बरसों पहले तुम्हारी खातिर ही,
छुपाया था उसको वहाँ पर,

बरसों बाद वहीँ मिलूंगा तुमको।

शौर्य जीत सिंह
१८ फरवरी, २०१४
गाज़ियाबाद