Sunday, June 27, 2010

बाबा

एक दिन,
सवेरे,आँख खुली तो,
खुद को सोया हुआ पाया,
उसी खाट पर,
जो आज बूढ़ी हो चुकी है,
शायद तब भी थी,
पर आज,
जर्जर हो चली है,

मैं आँखें मूदें,
किसी गोद में चला जा रहा था,
लोहे के नल के चलने की आवाज़,
कानों में पड़ी तो नींद खुली,
और एक रुखी सी,
गीली हथेली चेहरे को स्नेह देने लगी,
कुछ मीठा गुड,
मुँह में डाला,
और मैं,
अभी भी,
आँखों को पुनः ,
बंद करने की जिद करता रहा था,
"मछली देखने चलें"
काँपती आवाज़ कानों में पडी,
तो मानो स्फूर्ति मन में हिलोरे लेने लगी,
और निद्रा,
अपनी निद्रा में लीं हो गयी

कुछ बासी रोटियाँ लिए,
हम घर के पिछवाड़े,
अपने तालाब पर पहुँचे,
रोटियों के टुकड़े फ़ेकेऔर मछलियाँ ,
सुनहरी,हरी,पीली और जाने कितनी रंगीली,
जल क्रीड़ा करने लगी,
ऐसा सुख , ऐसा आनंद,
पर पीछे,
एक हाथ कंधे पर,
अभी भी आगे न जाने के लिए कह रहा था,
जबरदस्ती कर रहा था

मैं भी आगे जाने की जिद कर रहा था,
कि अर्धनिद्रा से चेता,
लगा,
क्या कुछ भी शेष नहीं था,
सब कुछ समाप्त हो गया,
सब कुछ..!!

मात्र एक स्मृति शेष थी,
बाबा..!!
(February '05)

I'll always miss you a lot Baba..!!