मैं जानता नहीं ,
कि अब आगे लिख पाऊंगा ,
शब्दों की नुमाइश,
भावना की स्याही से,
सजा पाऊंगा ,
कि जितनी भी रही वजहें,
कलम में रंग भरने की,
वो सारी मिट गयी हैं,
बुझ गयी हैं,
मुझे अब शाम को सूरज बड़ा फ़ीका सा लगता है,
कभी सिंदूरी इसके रंगों में सपने पिरोता था,
नगमें बनाता था;
कई दिन हो गए छत पे गए,
नहीं की चाँद से बातें,
जब उसकी गुफ्तगू औरों को मैं,
कविता बनाकर पेश करता था,
कभी नाराज़ होता था कभी हँसता था वो मुझ पर,
उसी का अक्स था हर लफ्ज़ में
मगर अब वो नहीं दिखता
पराये जान पड़ते हैं
ये सारे शब्द अब मुझको,
कभी मुझको अकेलेपन में
ये साथी से लगते थे,
मैं जानता नहीं ,
कि अब आगे लिख पाऊंगा ,
शब्दों की नुमाइश,
भावना की स्याही से,
सजा पाऊंगा ,
शौर्य जीत सिंह
२८ मई २०१२, गुडगाँव