Monday, May 28, 2012

क्या लिखूँ


मैं जानता नहीं ,
कि अब आगे लिख  पाऊंगा ,
शब्दों की नुमाइश,
भावना की स्याही से,
सजा  पाऊंगा ,

कि जितनी भी रही वजहें,
कलम में रंग भरने की,
वो सारी मिट गयी हैं,
बुझ गयी हैं,

मुझे अब शाम को सूरज बड़ा फ़ीका सा लगता है,
कभी सिंदूरी इसके रंगों में सपने पिरोता था,
नगमें  बनाता था;

कई दिन हो गए छत पे गए,
नहीं की चाँद से बातें,
जब उसकी गुफ्तगू औरों को मैं,
कविता बनाकर पेश करता था,
कभी नाराज़ होता था कभी हँसता था वो मुझ पर,
उसी का अक्स था हर लफ्ज़ में
मगर अब वो नहीं दिखता

पराये जान पड़ते हैं
ये सारे शब्द अब मुझको,
कभी मुझको अकेलेपन में
ये साथी से लगते थे,
मैं जानता नहीं ,
कि अब आगे लिख  पाऊंगा ,
शब्दों की नुमाइश,
भावना की स्याही से,
सजा  पाऊंगा ,

शौर्य जीत सिंह
२८ मई २०१२, गुडगाँव

Monday, May 21, 2012

शौर्य

मैं अटल विश्वास हूँ,
अधिकार हूँ,
अभिमान हूँ,

मैं धरा पे सूर्य,
नभ में रोशनी की चाह में,
अग्नि हूँ, 
उल्लास हूँ,
मैं श्रृष्टि का वरदान हूँ,

अनगिनत विघ्नों से आगे,
बढ़ रहा प्रत्येक दिन,
मैं समय की आस हूँ,
उम्मीद हूँ,
आह्लाद हूँ,

मैं शिवा का कंठ,
गीता सार हूँ मैं कृष्ण का,
मैं प्रतिज्ञा भीष्म की,
संसार का आधार हूँ,


मैं सनातन धर्म हूँ,
मैं काल का संवाद हूँ,
पार्थ के रथ की ध्वजा,
पुरुषार्थ हूँ,
परमार्थ हूँ,

मैं चमक हूँ चक्षु की,
मन में बसा अहसास हूँ,
मैं पवन जल अग्नि धरती,
आसमान हूँ,
शौर्य हूँ |

--
शौर्य जीत सिंह,
१९ मई २०१२, गाज़ियाबाद

Sunday, May 13, 2012

मुलाक़ात

प्लेटफ़ॉर्म के उस तरफ,
दो गुज़रती हुई ट्रेनों की खिड़कियों के बीच,
उसका चेहरा दिखा,
और कुछ देर बाद,
ओझल हो गया,
ना जाने कौन सी खिड़की में गुम हो गया,

मुलाक़ात बरसों बाद की थी,
जो शुरुआत से पहले ही ख़तम हो गयी,
मैं कभी समझ ना सका,
कब ये छोटी सी दूरी,
मीलों के फासलों में तब्दील हो गयी,

कुछ मिनटों में सब कुछ गुज़र गया,
अगर कुछ बचा,
तो सिर्फ़ प्लेटफ़ॉर्म,
भीड़,
लोगों को दूर करती खिड़कियाँ,
और मैं |

शौर्य जीत सिंह
१२/०५/२०१२
दिल्ली

धुँधले रिश्ते

पुरानी किसी किताब के,
धुँधले हो चुके शब्दों के,
मायने नहीं बदले अब तक,
हाँ अब पढ़े नहीं जाते,
इसलिए याद कम रहते हैं |

पुराने दोस्त,
जिनसे मिलना नहीं होता,
अहमियत उनकी,
अभी उतनी ही है,
हाँ अब रोज़ बातें नहीं करते |

ऐसे और भी कई रिश्ते हैं,
जो समय की रेत पर,
पुरानी किताब के,
धुँधले शब्दों की तरह,
रोज़ धुँधले हो रहे हैं,
पर हमेशा सबसे ख़ास बने रहते हैं |

--
शौर्य जीत सिंह
१२/०५/२०१२
दिल्ली

Monday, May 07, 2012

याद आएगा

सोचता हूँ तुझे याद करूंगा,
तो क्या क्या याद आएगा
|

रात को जगना सोचूंगा या,
चलना संग याद आएगा
,
याद आएगा सपने बुनना
,
या झूठे वादे मेरे
,
तेरी भीगी पलकें सोचूँ
,
या हँसना याद आएगा
|

सोचता हूँ तुझे याद करूंगा,
तो क्या क्या याद आएगा
|

साँसों की आवाज़ सुनूँ फिर,
या अपने गुस्सम-गुस्से
,
बिना बात के लम्बे झगड़े
,
चुप होना याद आएगा
,
मेरी कविता के मतलब को
,
नहीं समझ पाना तेरा
,

मेरा फिर खुश हो कर तुझको,
समझाना याद आएगा |

सोचता हूँ तुझे याद करूंगा,
तो क्या क्या याद आएगा
|



क्या सोचूँ क्या मिस कर दूँ इनमे,
लिस्ट बहुत ये लम्बी है,
भूला कुछ तो झगड़ोगे फिर
,
हाँ ये भी याद आएगा
|

तेरी यादों से रौशन हूँ,
और नहीं कुछ पास मेरे
,
और ना हो कुछ हासिल मुझको
,
बस ये संग रह जाएगा
|

सोचता हूँ तुझे याद करूंगा,
तो क्या क्या याद आएगा
|

--
शौर्य जीत सिंह,
०४/०५/२०१२

दिल्ली से जयपुर तक