Tuesday, October 16, 2012

डायरी के पन्ने

खामोश दिन,
और बातें करती रातों के बीच,
एक वक़्त ऐसा होता है,
जब सन्नाटे शोर करते हैं,
और मैं,
अँधेरों से रौशन होता हूँ,

रंगों की उधेड़-बुन में,
सारे ताने बाने कोरे रह जाते हैं,
धूप गीला करती है हर बार,
पानी पा कर सूख चुके खयालों को,
और मैं निकल पड़ता हूँ,
यादो की उसी किसी पुरानी झील के किनारे,
जहाँ कलम में स्याही सूख कर,
मोती की शक्ल ले लेती है,
और कुछ टुकडे छोड़ जाती है अपने,
मेरी डायरी के पन्नो पर,
उन्हें समेट  कर हर दफा,
डायरी में यूँ  बंद कर लेता हूँ,
जैसे बरसों लगेंगे,
उससे फिर मिलने में।

--
शौर्य जीत सिंह
17 अक्टूबर, 2012 - जमशेदपुर


त्रिवेणी

बारिश खिडकियों के रस्ते यूँ  आ गयी घर में,
जैसे दबे पाँव तुम आ गए हो मेरे लिहाफ में,

बारिश ने आज ठंडा नहीं किया, कुछ हरारत दे गयी।

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शौर्य जीत सिंह
11 अक्टूबर, 2011 - जमशेदपुर