Monday, November 07, 2022

आत्मकथा

एक पिता ने

अपनी आत्मकथा

कुछ ऐसे लिखी


कोरे ही छोड़ दिए पन्ने

अपनी डायरी के

कि वो स्याही

रंग भर सके

उसके बच्चों की 

कहानी में।


शौर्य जीत सिंह

०७ नवंबर २०२२, मुंबई


Friday, August 05, 2022

तुम्हारे साथ

 नदी हो तुम,

और मैं तुम पर गिरा एक सूखा पत्ता,


बस इसी खींच-तान में हूँ

कि किनारे पे बैठ,

निहारता रहूँ तुमको 

या तुम्हारे साथ बह कर देखूं ।  


- शौर्य जीत सिंह

05 अगस्त  2022, मुम्बई

Saturday, May 16, 2020

साला मज़दूर

वह तिल तिल कर
थोड़ा थोड़ा
हर रोज़ मरता है,
साला मज़दूर,
बदबू बहुत करता है।

परचून की दुकान पर,
चवन्नी अठन्नी के लिए लड़ता है,
बारह घंटे की शिफ्ट में,
जी नहीं भरता इसका,
ओवरटाइम भी करता है,
साला मज़दूर,
बदबू बहुत करता है।

दस बाई दस के झोपड़ों में,
दस और कुत्तों संग रहता है,
बाप की दवा,
और बच्चों की फीस की खातिर,
बस एक वक्त ही पेट भरता है,
साला मज़दूर,
बदबू बहुत करता है।

दुनिया भर का ज़हर,
अपने में भर के,
अंदर अंदर खुद-ब-खुद सड़ता है,
हमारी ऊंची इमारतों को चमका कर,
खुद कालिख सा,
किसी गर्त में गिरता है,
साला मज़दूर,
बदबू बहुत करता है।

हमारे शहरों की रौनक,
कम होती है इसके होने से,
क्या हुआ जो हर सुबह हमारे उठने से पहले,
शायद सारा कचरा यही ढोता है,
लेकिन,
साला मज़दूर,
बदबू बहुत करता है।

नासमझ पागल है साला,
हर किसी से उम्मीद रखता है,
मीलों दूर घर की राह,
कदमों से चलने का दम भरता है,
साला मज़दूर,
बदबू बहुत करता है।

हमें क्या मतलब,
साला क्यों जीता,
क्यों मरता है,
हमें बस इतना मालूम है,
साला मज़दूर,
बदबू बहुत करता है।


- शौर्य जीत सिंह
16 मई 2020, मुम्बई

(कोरोना वायरस के समय असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के पलायन और दयनीय स्थिति पर कटाक्ष)

Saturday, March 28, 2020

बहुत कुछ और हो तुम

मैं गिन के रखता हूँ जिन पलों को सीने में
जैसे मेरी अब तक की
बस एक ही कमाई हो तुम
गर्मी से झुलसती मेरी सांसो की खातिर
ठंडक का वो पहला एहसास
जैसे आम के पेडो की
वो पहली बौर हो तुम

मैं जिसे खर्च नही करता किसी की खातिर
सिर्फ अपने अंदर समेट कर रखता हूँ]
बिना जिसके मेरी कोई अहमियत
कोई अभिमान, कोई पहचान नही
चुप्पी मेरे होठों की
और मेरे मन का शोर हो तुम

हाथ से छूट न जाये यही डरता हूँ
जिसको पाने के लिए
हर रोज़
कितनी ही दफा मरता हूँ
वो ख्वाब जिसका एक सिरा मेरा है
उसी ख्वाब का
एक दूसरा खूसूरत छोर हो तुम

मैं जो गिर जाऊं कभी भीड़ में
इस दुनिया की
बाहों में भर के मुझे झट से उठा लेती हो
धूप कितनी भी हो बनती हो तुम छाया मेरी
मेरी भागती दौड़ती ज़िन्दगी में
फुरसत का
एक ठौर हो तुम

सिर्फ एक ख्वाब, याद और एहसास नही हो सुन लो
मेरे जीने के लिए
बहुत कुछ और हो तुम


--
शौर्य जीत सिंह
27 मार्च 2020, मुम्बई

Sunday, October 13, 2019

त्रिवेणी

ख़ामोश रह कर भी बहुत कुछ कह जाने का अंदाज़ मेरा ,
और तुम्हारा सब कुछ बिना पलकें झपकाए पढ़ लेना,

ये ख़ामोशी हम दोनों के सिवाय और कोई समझता भी तो नहीं।

-
शौर्य जीत सिंह
२७ सितम्बर २०१९, मुंबई


Saturday, September 07, 2019

उसने

बारहा मुझसे गले मिल के हँसा करता था,
क्यों मेरी पीठ का खंज़र न निकाला उसने।

उसकी चुप्पी में भी आवाज़ हुआ करती थी,
जब वो दूर गया कुछ नही बोला उसने।

चर्चा-ए-आम रहा हर वो फ़साना अपना,
क्यूँ गया छोड़ कर ये राज़ न खोला उसने।

मेरी परवाज़ में वो साथ रहा रूह बन कर,
जब गिरा गर्त में तो क्यों न सम्हाला उसने।

चंद लम्हों की ही यारी थी एक अरसे से
साथ चलने का कोई शौक न पाला उसने।

दिल मे जो टीस रही वो भी एक तरफ़ा रही,
एक कतरा भी तो मरहम का ना डाला उसने।
...


शौर्य जीत सिंह
मुम्बई, 15 अगस्त 2019

Monday, July 15, 2019

कभी यूँ भी बरसो

कभी यूँ भी बरसो,
कि मन भीगे।

गलियों और सडकों का सूनापन,
जब मुझसे हो कर गुज़रे,
तो तुम्हारे टिप टिप की खनक से,
गुलज़ार हो कर चहके।
कभी यूँ भी बरसो,
कि मन भीगे।

पेड़ों के पत्तों पर जमी धूल,
जब मेरी आँखों में गिरने को हो,
तुम्हारे हल्के बहाव में,
सुनहरी हो कर बिखरे।
कभी यूँ भी बरसो,
कि मन भीगे।

ज़मीन की ये कठोर तपन,
जब मेरी एड़ियाँ पिघलाने को हो,
तुम्हारी ठंडी बूंदों संग,
कुछ शर्मा के पिघले।
कभी यूँ भी बरसो,
कि मन भीगे।

हवाओं के गर्म थपेड़े,
जब मेरी साँसों में घुलने लगे,
तुम्हारी बौछारों से मिल कर,
पूरी कायनात में महके,
कभी यूँ भी बरसो,
कि मन भीगे।

कभी यूँ भी बरसो,
कि मन भीगे।

-
शौर्य जीत सिंह
३० जून २०१९, मुम्बई