Tuesday, October 24, 2006

Woh Bikhari Saanson Ki ladiyan........

वो बिखरी सांसों की लड्रियां

सांसें गिनकर लड्री बनायी,
धड्रकन के कुछ टुकड्रे जोड्रे,
तेरी कुछ बिखरी सांसें थी,
मेरी भी उलझी धड्रकन थी,
आंखों में धुंधली सी दुनिया,
सीने में सोये अरमां थे,
टूटे फूटे इस सपने में
जो भी था
सब कुछ अपना था.

क्यूं वापस लेने आयी हो
उन बिखरी सांसों कि लड्रियां,
इन लड्रियों में उलझी धड्र्कन
शायद तुझ तक भी पहुंचेगी,
देखो,इन्हें पिरो के रखना
तेरी सांसें, मेरी धड्रकन.

जब भी ये लड्रियां टूटेंगी,
वो धड्रकन भी थम जायेगी,
और थमेंगे वो सपने भी
टूटे फूटे जिस सपने में
जो कुछ था
सब कुछ अपना था.


18.10.2006
Shaurya Jeet Singh

Tuesday, October 10, 2006

पल

याद हैं
मुझे वो पल,

तुम्हारी पलकों की वो झालर
उसका जलना
और शरमा के बुझ जाना,
तुम्हारी सांसो के
गर्म थपेडों से
मेरे पोर पोर का
मोम सा पिघल जाना,
तुम्हारे खुश्क कंपकंपाते होठों का
मेरे सीने पे आयतें लिखना,
तुम्हारे दांतों की चुभन का
मेरे होठों पे रंग सजाना,
और तुम्हारी जुल्फ़ों का
मेरे चेहरे पे बिछा पश्मीना,
तुम्हारा मुझे इस संजीदगी से देखना
और मेरे कुछ पूछते ही
तुम्हारा अमावस के मुरझाये चांद सा
मेरे सीने मे छुप जाना.
और
तुम्हारी आंखों से
मेरे चेहरे पे गिरी,
शबनम की वो सात बून्दें


याद हैं मुझे वो पल,
पर ये पल
थमते नहीं
रुकते नहीं
ठहरते नहीं
नदी के बहते पानी से
चलते चले जाते हैं
और इन्हें दिल में संजोये,
मैं भी इनके साथ चला जा रहा हूं
जानता हूं मैं कि
तू समन्दर है
मुझ तक नही आयेगी,
तभी चला जा रहा हूं
शायद मैं ही पहुंच जाऊं कभी तुझ तक,

मेरे होठों से तुम्हारे होठों पे लिखी ईबारतें,
जो शायद मिट भी गई हों
तुम्हें याद तो होंगी ना.

शौर्य जीत सिंह
०२/०७/२००६

I dedicate my this poem to my someone special.hope some day I'll get her back!!!!

Wednesday, January 04, 2006

चहकते कदम

चहकते कदमों का चुप हो जाना,
अजीब तो लगता है.


छनकती थी घटा
जब पैरों में,
सिमटती थी पूरी नदी,
कमर पे अटके घड्रे में,
तमाम कोशिशों के बावज़ूद,
आसमान बार बार उड्र जाया करता था
सिर से........
और दूसरों के बगीचों से
इमली चुराने के पुलाव पकते थे.


मांग में शाम के रंग सज़े
तो नदी मे कुछ और उथल पुथल हुई,
आसमान कुछ और रंगीन हो गया,
और घटाएं और तेज़ी से बरसने लगीं.


पता चला,
चन्द मुट्ठी हरियाली के लिये,
उन लोगों ने,
नदी का बहाव रोक दिया है,
घटायें रूठ गयी हैं,
और आसमान को गुबार के हवाले कर दिया है.


आज नदी शान्त है.
और आसमान सूना,
घटायें सन्नाटों में गुम हैं,
और इमली के पुलाव नहीं पकते.


घर की सूनी चौखट पे बैठा,
आधा सूरज
इस इन्तज़ार में
कि
शायद,
आसमान फिर से खुशनुमां हो जाये,
और बाट जोह रहा है,
नदी के फिर से बह चलने का,
उस आधे सूरज का चेहरा देख कर लगा,
चहकते कदमों का चुप हो जाना,
अजीब तो लगता है.


हां ,
कल ये भी सुना है,
कि
एक ही नदी के,
दो बहाव रुके हैं.


चहकते कदमों का चुप हो जाना,
अजीब तो लगता है.


शौर्यजीत सिंह
०३.१२.२००५



my this poem is dedicated to a girl who died because of dowery............with her child in her...........