वे रातें,
जो गाँव में,
आसमान के नीचे गुज़रती थी,
कुछ ख़ास था उनमे,
तारों के कई पैटर्न थे,
और उनकी पोजीशन से लेकर,
मूवमेंट तक सब कुछ,
ज़बानी याद हो चला था ,
सप्तर्षि तो रोज़ देखता था,
ध्रुव तारा कभी दिखा नहीं मुझको,
बाबा कहते थे,
वो रात के बारह बजे के बाद दिखता है,
पर आँखें हर रात,
आधी रात से पहले ही,
बोझिल होकर बंद हो जाती थी,
आज कुछ बीस-एक साल बाद,
जगराते तो अक्सर होते हैं,
लेकिन सर के ऊपर पी. ओ. पी. की छत होती है,
जिसके पार,
ना आसमान दिखता है,
ना ध्रुव तार,
और ना ही बाबा।
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शौर्य जीत सिंह
१६ /०५/२०१३
आजमगढ़
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