एक किताब है,
कुछ सौ-इक पन्नों की,
पढ़ा नहीं उसको कभी पर,
हमेशा सिरहाने रख कर सोता हूँ,
जिन शब्दों के मायने नहीं मालूम,
महसूस करता हूँ उनको,
बिखरी हुई पत्तियों वाला,
एक सूखा फूल है उसमें,
पड़ा रहता है खामोश सा,
उन्ही दो पन्नों के बीच,
खुशबू तो नहीं देता,
पर उससे ही महकता रहता हूँ,
रात भर.
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शौर्य जीत सिंह
२०-०१-२०१२, जमशेदपुर
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