Tuesday, December 27, 2005

शाम

पहले,
जब शाम आती थी
तो
सूरज ऊंघता था,
अपने नीले बिछौने मे,
ढक लेता था
अपना चेहरा,
उस लाल चादर मे,
और दूसरे छोर पे,
चमकता चांद
मुस्कुराया करता था उसकी बेचारगी पर,
बैठती थी शाम ,
मेरे बगल की
उस खाली कुर्सी पे,
मुस्कुरता हुआ ,
चेहरा,
शाम का,
रोकता था हर पल को
कि हो न जाये रात,
देखते ही देखते
गुज़र जाया करता था,
जाने कितना ही वक्त,
शाम के साथ.
एक उम्र गुज़र गयी,
और कुछ भी तो नही बदला,
अब भी
सूरज वही लाल चदर ओढे,
चेहरा ढक लेता है,
और चांद,
अब भी,
वैसे ही मुस्कुराता है,
अगर कुछ बदल गया है ,
तो सिर्फ़ इतना,
कि
अब शाम नही आती,
हां............
वो शाम..........
वो शाम याद बहुत आती है.

शौर्य जीत सिंह
०३.११.२००५

2 comments:

Runit Saria said...

i wish i could analyse how good a poem was. but i wonder if i would be able to write the same or think in the same way..and then i realise that it is something..that it is something that i need to appreciate..keep on with this thing that i dont think ill ever be albe to do..

Shaurya said...

thanx Runit...........