कभी आँखों पे चश्मा लगाकर
चश्मा ढूंढता हूँ
तो कभी हाथ में कलम पकड़ कर कलम
और जेब में रखी चाबी तो जाने कितनी बार
दिल में बसी कोई चीज़ भी
यूँ ही कई बार ढूंढी है
उस शून्य को, तुझे और कभी कभी खुद को भी
ये कम्बख्त भुलक्कड़पन दिल तक जा बसा है.....
Spetember 2009
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