गाँव वाले घर के बरामदे में
बाबा की एक खटिया बिछती थी
बाकी सब खटियों से अलग
मोटे पैरों वाली
और बाकियों से कुछ और चौड़ी
बाबा की खटिया
अलग थी सबसे
जिस पर दिन भर एक गद्दा
मोड़ कर सिरहाने रख जाता था
और रात में वही बिछ जाता था
उनके सोने के लिए
उनके सोने से पहले,
हमारे खेल कूद का मैदान होता था
बाबा की खटिया का सफेद बिस्तर
बाबा के जाने के बाद भी
कई सालों तक
उनकी खटिया, उनके होने का आभास छोड़ जाती थी
इस बार गांव के घर पर
उनकी खटिया की जगह
लकड़ी का सोफा था
पर उस सोफे पर
कोई सोता नहीं
कोई खेलता नहीं
अब उस बरामदे में
बाबा के होने का एहसाह नहीं होता
खटिया के पाए भी
पीछे किसी कमरे में खुले रखे थे
शायद अगले जाड़े में
जलाने के काम आयेंगे
गुजरने पर उनके
उनको सालों पहले ही फूंक आए थे
उनके एहसास के लिए ये जाड़े बहुत होंगे
शौर्य जीत सिंह
१२/१०/२०२५
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