एक लाइन ,
जो अटकी है मन में,
कुछ वक़्त से,
लाख कोशिशों के बाद भी,
उतरती नहीं पन्नों पर।
कभी आस पास
औरों को देख कर
ठिठक जाती है,
तो कभी अल्फ़ाज़ों के जंगल में
उलझ जाती है,
बड़ी सीधी सादी है,
शरमाती है,
सकुचाती है।
किसी रोज़ फुर्सत सॆ
नज़दीक आ कर,
मेरी आँखों में ही पढ़ लेना तुम,
उस लाइन को
लफ्ज़ नाकाफ़ी होंगे शायद।
२२ फरवरी, २०१४
नई दिल्ली
जो अटकी है मन में,
कुछ वक़्त से,
लाख कोशिशों के बाद भी,
उतरती नहीं पन्नों पर।
कभी आस पास
औरों को देख कर
ठिठक जाती है,
तो कभी अल्फ़ाज़ों के जंगल में
उलझ जाती है,
बड़ी सीधी सादी है,
शरमाती है,
सकुचाती है।
किसी रोज़ फुर्सत सॆ
नज़दीक आ कर,
मेरी आँखों में ही पढ़ लेना तुम,
उस लाइन को
लफ्ज़ नाकाफ़ी होंगे शायद।
२२ फरवरी, २०१४
नई दिल्ली
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